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रीयल पुलिस |
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रील पुलिस |
मुकेश कुमार सिंह की कलम से----
आज हम एक गंभीर विषय पर ना केवल चर्चा हैं बल्कि देश स्तर पर इस विषय पर तटस्थ बहस और विमर्श हो इसकी अपील भी कर रहे हैं। देश के संविधान क्रियान्वयन के समय से ही एक प्रश्न आजतक बेउत्तर मौजूं है.आखिर क्या है हमारी पुलिस की विफलता का राज?आखिर क्या वजह है की तमाम भगीरथ प्रयासों और मशक्कत के बाद भी हमारी पुलिस जनता के बीच आजतक अपनी वह छवि नहीं बना पायी है जो विदेशों में वहाँ की पुलिस ने बना रखी है।हमारी समझ से इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही साधारण है और वजह भी कोई खास नहीं है।व्यापक परिदृश्य में आंकड़ों पर गौर करें तो "हमारे देश के लोग कानून से नहीं बल्कि पुलिस से डरते हैं"जबकि इसके ठीक उलट विदेशों में लोग अपने देश के कानून को सम्मान देते हैं और पुलिस को सहयोग।वहाँ की जनता अपनी पुलिस से नहीं बल्कि देश के कानून से डरती है।जाहिर तौर पर यही कारण है की विदेशों में पुलिस कामयाब और सम्मानित है लेकिन अपने देश में पुलिस ठीक इसके विपरीत नजर आती है।भारतीय परिवेश में आज "खाकी"का नाम जुवां पर आते ही एक अजीबो--गरीब छवि आँखों के सामने आ जाती है। आम धारणा यह है की खाकी वर्दी में जो व्यक्ति है वह कठोर,निर्दयी और भ्रष्ट हैवान है और जिसका भय भारतीय जनता के बीच वर्षों से बना हुआ है।हांलांकि मुट्ठी भर ऐसे लोग जरुर हैं जो खाकी पहने व्यक्तियों को समझते हैं। उन्हें पता है उनकी परेशानियां,मजबूरियां,आवश्यकता एं और अपेक्षाएं।यहाँ गौरतलब है की उन खाकी वर्दीधारियों की ऐसी छवि बनायी किसने और लोग यह क्यों नहीं समझते हैं की उनका भी एक परिवार है।उनकी भी एक व्यक्तिगत जिन्दगी है।उन्हें भी समाज से ना केवल अपेक्षा है बल्कि उनके सीने में भी धड़कता हुआ एक दिल है।क्या लोगों ने कभी यह सोचने की जहमत उठायी है की वह अपने परिवार को कितना समय दे पाते हैं।अगर उनकी तैनाती दूर--दराज के इलाके में है तो वे कितने अरसे बाद अपने स्वजन--परिजनों की एक झलक देख पाते हैं?दिन हो या रात अफसरों के तेवर और अपराधियों की चुनौतियों के बीच वे अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन आखिर कैसे बरकरार रख पाते हैं?ज़रा समझिये की हेलमेट पहनने में आपकी सुरक्षा है लेकिन उसे पहनाने की जिम्मेदारी पुलिसकी?गलत तरीके से वाहन चलाने पर दुर्घटनाग्रस्त आप होते हैं लेकिन आपको अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी पुलिस की?अपने समाज पर अत्याचार होता देख आप अपने घर में दुबक जाते हैं लेकिन उस अत्याचारी से बचाने की जिम्मेदारी पुलिस की?आँखों के सामने कत्ल हुआ किसी का लेकिन गवाह ढूंढने की जिम्मेदारी पुलिसकी?ऐसी ही ना जाने कितनी समस्याएं हैं जिसके जिम्मेवार हम स्वयं हैं लेकिन सारी जिम्मेदारी पुलिस की।यहाँ एक विचित्र बात पर प्रकाश डालना आवश्यक है की आम नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं लेकिन जब अपने सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों की बात आती है वे उसकी उपेक्षा कर अनभिज्ञता प्रकट कर देते हैं।अगर सामान्य नागरिक की किंचित जागरूकता और सहयोग हमारी पुलिस को मिल जाए तो हम डंके की चोट पर कहते हैं की हमारी पुलिस कितनी सक्रिय हो सकती है,हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते?
आखिर में आपसे एक बात पूछने की कोशिश कर रहा हूँ की आप ने एक डॉक्टर,एक शिक्षक,एक अधिकारी से लेकर रसूखदारों और नेताओं तक को "थैंक यू" जरुर कहा होगा लेकिन क्या आपने कभी एक पुलिसवाले से कभी "थैंक यू "कहा है? ईमानदारी से कभी उन्हें भी "थैंक यू"कहकर देखिये।मेरा दावा है की उनकी आँखे ना केवल भर आएँगी बल्कि उनका कलेजा मुंह को आ जाएगा।
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